Natasha

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राजा की रानी

यह भी दक्षिण की हवा का मामला है। अतएव, प्रकृति की शोभा देखने साथ में जाना ही पड़ा। रास्ते में दोनों ओर आम के बगीचे हैं। करीब पहुँचते ही असंख्य छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े चड़-चड़ पट-पट आवाज करते हुए आम्र-मुकलों को छोड़कर ऑंख, नाक, मुँह और कपड़ों के भीतर घुस गये। सूखे पत्तों पर आम का मधु गिरकर चिपकनी लेई की तरह हो गया था, वह जूते के तलों में चिपकने लगा। सँकरे रास्ते का बहुत-सा हिस्सा बेदखल कर विराजमान मुकलित-विकसित फूलों के भार से लदीं घनी करौंदे की झाड़ियाँ- इसी समय यदि आ गयीं नवीन की चेतावनी। गौहर के मतानुसार यह वक्त पागल होने लायक ही है, इसलिए करौदे के फूलों की शोभा और किसी दिन समय के अनुसार उपभोग की जायेगी। आज गौहर और मैं- यानी नवीन के 'ढोर आदमी' ने जरा तेज कदम से ही स्थान त्याग किया।


मैं कह चुका हूँ कि हमारे गाँव की नदी इस गाँव की सीमा में भी होकर बहती है। वर्षा की चौड़ी जलधारा वसन्त के समागम से पतली शीर्ण हो गयी है। उस समय धार के साथ बहकर आई अपरिमेय सिवार और काई शुष्क तट-भूमि पर फैल गयी है और शिशिर और धूप में सड़कर उसने सारी जगह को दुर्गेन्ध से नरक-कुण्ड बना दिया है। नदी के उस पार कुछ दूर से मरके पेड़ में सैकड़ों लाल फूल खिले हुए थे। उन पर पड़ी, लेकिन इस वक्त कवि को भी उस ओर दृष्टि आकर्षित करना ठीक नहीं लगा। उसने कहा, “चलो, घर लौट चलें।”

“अच्छा, चलो।”

“मेरा खयाल था कि ये सब चीजें अच्छी लगेंगी।”

कहा, “अच्छी लगेंगी भाई, लगेंगी। अच्छे-अच्छे शब्दों में तुम इनको कविता में लिखो, मैं पढ़कर खुश हूँगा।”

“शायद इसीलिए गाँव के आदमी एक बार भूलकर भी इन्हें नहीं देखते।”

“नहीं। देखते-देखते उन्हें अरुचि हो गयी है। भाई, ऑंखों की रुचि और कानों की रुचि एक नहीं है। जो यह सोचते हैं कि कवि के वर्णन को अपनी ऑंखों देखने पर लोग मोहित हो जाते हैं, वह नहीं जानते सत्य क्या है। दुनिया के हर काम में यह बात लागू है। ऑंखों के लिए जो एक साधारण घटना या बहुत मामूली-सी वस्तु है वही कवि की भाषा में 'नयी सृष्टि' हो जाती है। तुम जो देखते हो वह भी सत्य है, और जो मैं नहीं देख सका वह भी सत्य है। इसके लिए तुम दुखी मत होना गौहर।'

तो भी लौटते समय रास्ते में उसने न जाने कितनी और क्या-क्या वस्तुएँ दिखाने की चेष्टा की। पथ का प्रत्येक वृक्ष, प्रत्येक लता पौधा तक मानो उसका पहिचाना हुआ है। न जाने कब एक पेड़ की छाल औषधि के लिए कोई छीलकर ले गया था और उससे चिपकनेवाला पदार्थ अब भी झर रहा था। सहसा उसे देखकर गौहर सिहर-सा उठा। उसकी ऑंखें छलछला आयीं, मैं उसके मुँह की ओर देखकर यह स्पष्टतया समझ गया कि अन्तर में उसने कितनी वेदना का अनुभव किया है। चक्रवर्ती जो अपनी सब खोई हुई चीजें पुन: वापस प्राप्त कर रहा था, सो केवल अपनी होशियारी के कारण नहीं, इसका कारण तो गौहर के स्वभाव में ही है। ब्राह्मण के प्रति मेरा क्रोध बहुत कुछ अपने आप ही कम हो गया। चक्रवर्ती से मुलाकात नहीं हुई, क्योंकि सुना गया कि उसके घर में उसके दो नातियों पर शीतला-माता की कृपा हुई है। अब तक गाँव-गाँव में विसूचिका-माता के दर्शन नहीं हुए हैं- वे सड़ी हुए तलैयों के पानी के थोड़ा और सूख जाने की राह देख रही हैं।

खैर, घर पहुँचकर गौहर ने अपना पोथा मेरे सामने हाजिर कर दिया। ऐसा आदमी संसार में बिरला ही होगा जिसे उसका परिणाम देखकर भय न लगता। बोला, “बिना पढ़े छुट्टी नहीं मिलेगी श्रीकान्त, और तुम्हें अपनी सच-सच राय देनी होगी।”

यह आशंका तो थी ही। साफ-साफ राजी हो सकूँ, इतना साहस नहीं था, तो भी कवि की वाटिका में इस यात्रा के, एक के बाद एक, मेरे सात दिन काव्यालोचना में ही कट गये। काव्य की बात जाने दो, किन्तु सघन साहचर्य में इस मनुष्य का जो परिचय मिला, व जितना सुन्दर था उतना ही विस्मयकारक।

एक दिन गौहर ने कहा, “श्रीकान्त, तुम्हें बर्मा जाने की क्या जरूरत है? हम दोनों के ही अपना कहने लायक कोई नहीं है, तो आओ ने हम दोनों भाई यहीं एक साथ जीवन बिता दें!”

हँसकर कहा, “मैं तो तुम्हारी तरह कवि नहीं हूँ भाई, न पेड़-पौधों की भाषा ही समझता हूँ, और न उनसे बातचीत कर सकता हूँ, फिर इस जंगल में कैसे रह सकूँगा? दो दिन में ही हाँफ जाऊँगा”

गौहर ने गम्भीर होकर कहा, “किन्तु मैं उनकी भाषा वाकई समझता हूँ। वे सचमुच बोलते हैं- क्या तुम लोग विश्वास नहीं करते?”

मैंने कहा, “यह तो तुम भी समझते हो कि विश्वास करना मुश्किल है?”

गौहर ने सरलता से स्वीकार कर लिया, कहा, “हाँ, हाँ, यह तो समझता हूँ।”

एक दिन सुबह अपनी रामायण का अशोक-वन वाला अध्या य कुछ देर तक पढ़ने के बाद उसने हठात् किताब बन्द कर दी और मेरी ओर घूमकर प्रश्न किया, “अच्छा श्रीकान्त, तुमने कभी किसी को प्यार किया है?”

कल बहुत रात तक जागकर राजलक्ष्मी को शायद अपनी अन्तिम चिट्टी- लिखी थी। उसमें बाबा की बातें, पूँटू की कथा और उसके दुर्भाग्य का समस्त विवरण था। उन लोगों को वचन दिया था कि एक आदमी की अनुमति माँग लूँगा- सो वह भिक्षा भी उसमें माँगी थी। चिट्ठी भेजी नहीं थी, उस वक्त पॉकेट में ही पड़ी हुई थी। गौहर के प्रश्न के उत्तर में हँसकर कहा, “नहीं।”

गौहर ने कहा, “यदि कभी प्यार करो, यदि कभी ऐसा दिन आये तो मुझे जताना श्रीकान्त।”

“जानकर क्या करोगे?”

“कुछ भी नहीं। तब सिर्फ तुम लोगों के बीच जाकर कुछ दिन काट आऊँगा।”

“अच्छा।”

“और अगर उस वक्त रुपयों की जरूरत हो तो मुझे खबर दे देना। बाबूजी बहुत रूपये छोड़ गये हैं, वह मेरे काम में तो लगा नहीं- किन्तु शायद तुम लोगों के काम में लग जाये।”

उसके कहने का तरीका कुछ ऐसा था कि सुनते ही ऑंखों से अश्रु निकल पड़े। कहा, “अच्छा, यह भी खबर दूँगा। पर आशीर्वाद दो कि इसकी कभी जरूरत न पड़े।”

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